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बीदरी कला के बर्तन
फारसियों और निकटवर्ती पूर्वी देशों द्वारा चित्रकला के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान देने के अलावा भारतीय सांस्कृतिक क्षेत्र में दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर उत्तम सजावट करना भी एक योगदान है. सास्कृतिक श्रेणी में इनका प्रमुख योगदान है - 'बिदारी या बीदरी वेयर', जो हैदराबाद से 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बीदर शहर से आरंभ हुआ और जो अब मैसूर, कर्नाटक में है.
बीदरी कला के बर्तनों का इतिहास 400 वर्ष पहले "बहमनी और बारिडी राजवंशों" के जमाने से मिलता है, जिनके संरक्षण में इनका विकास हुआ और इनके राज्यकाल के अंत तक यह अपनी परिपूर्णता और सुंदरता के चरम तक पहुंच गया था.
फारसी कलाकरों द्वारा भीतरी ओर लगाने के लिए लौह या तांबे जैसी सामग्री के अलावा जस्ता, तांबा और सीसा की मिश्र धातु की मूल सामग्री का उपयोग किया जाता था. जस्ता और तांबे के सम्मिश्रण पर जंग नहीं लगता और किंतु इनके मिश्रण पर ये क्षीण भी हो जाते हैं.
18वीं शताब्दी के अंत में भारतीय परंपरागत कला को बुरे दिन देखने पड़े, क्योंकि अब उन्हें सदियों से चली आ रही उस कुलीन वर्ग द्वारा कला का संरक्षण नहीं मिला रहा था. हैदराबाद के बाजारों में पहले तैयार की गई बीदरी – बर्तनों के संपूर्ण संग्रहों को कुलीनवर्गों के घरों द्वारा नज़रअंदाज कर दिया गया. लेकिन, ऐसे समय में निजाम सेवा में लगे ब्रिटिश अधिकारियों की उन पर नजर पड़ी.
पेंटिंग में भारतीय पारंपरिक कला को पुन: आरंभ करने में कड़ा प्रयास करनेवाले ई.बी. हैवल की तरह ही उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद के प्रोफेसर ई.ई. स्पीइट ने भी बीदरी कला के बने बर्तनों के पुनरुत्थान के लिए बहुत प्रयास किए. नए युग और समाज की मांग को देखते हुए अब बीदरी कला की बनी वस्तुओं के आकार व सौंदर्यकरण की शैली में परिवर्तन आ गया था.
पुराने बीदरी कला के बर्तनों के नमूनों में सबसे प्रसिद्ध बर्तन सलारजंग संग्रहालय, हैदराबाद में, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में, बीदरी संग्रह का हैदराबाद संग्रहालय, हैदराबाद और प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय (सीएसएमवीएस), मुंबई में रतन टाटा संग्रह में हैं. हैदराबाद के कुछ प्रसिद्ध परिवारों के पास भी बीदरी कला के बर्तनों के समृद्ध संग्रह हैं.
सलारजंग संग्रहालय में रखे बीदरी कला के बर्तन अपनी शिल्पकारी और कारीगरी में विभिन्नता लिए है. संग्रहालय में बीदरी कला के लगभग 200 बर्तन हैं, जो विभिन्न रूप और आकारों में हैं. इन्हें घर की उपयोगिता और शिल्पकारी में विविधता के आधार पर अलग-अलग समूहों में विभाजित किया जा सकता है.
संग्रहालय के बीदरी – संग्रह में आकार और डिजाइन में विशिष्टता के रूप में 'हुक्का' एक महत्वपूर्ण भाग है. कारीगरी में उत्कृष्ठ ता के आधार पर ये अपना प्रतिनिधित्व स्वयं कर सकते हैं तथा ये 'तरकाशी', 'तहनिशान', 'जरनिशान', 'जरुबुलंद', 'आफताबी' – अपने – अपने क्षेत्रों में अद्वितीय हैं. इस संग्रह में सोने से जड़ी वस्तुओं के कुछ उदाहरण भी हैं.
इस संग्रहालय में 'चिलम' (फायर कप) और 'मोनल' (मुंह के टुकड़े) भी हैं. 'ताइनीशान' प्रक्रिया में सपाट रजत पट्टियों से बनाये गये एक बड़े आकार का 'चिलम' र्आकषण का केंद्र है. बीदरी कला की अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं में 'सेलाबाची' (वॉश बेसिन) और 'अफताब' (ईवर) हैं. ये बर्तन पुरुषों और महिलाओं – दोनों के कमरों में अत्यंत लोकप्रिय थे.
इनमें बड़े आकार के गोलाकार 'सेलबाची' का जोड़ा, जिसके बीच में छिद्रित ढक्कन है और फारसी मदिरा फ्लैगन प्रकार की 'अफताब' शामिल हैं.
बीदरी कला की बनी वस्तुएं घरेलू उपयोग में पूरी तरह लोकप्रिय थे, जो ‘चांदनी’ (सफेद कागज़ों) को उड़ने से बचाने, एक साथ रखे जाने के लिए ‘मीर – फर्श’ या बाट के उपयोग से साबित होता है. इस संग्रहालय में ऐसी कलात्मक और सौंदर्यपरक कई वस्तुएं हैं.
सेलबाची (बेसिन), बीदरी - बर्तन, बीदर, भारत, 16वीं शताब्दी
बीदर, भारत, 16वीं शताब्दी, हुक्के का निचला भाग, बीदरी - बर्तन, बीदर, भारत, 19वीं शताब्दी के आरंभ में.