सलारजंग संग्रहालय का इतिहास
सलारजंग संग्रहालय की स्थापना 1951 में हुई थी और यह भारत देश के तेलंगाना राज्य के हैदराबाद शहर में मूसी नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है. इस संग्रहालय में रखी दुनिया भर से दुर्लभ कला वस्तुओं के संग्रहण का श्रेय सलारजंग परिवार को जाता है. यह परिवार दक्खिनी इतिहास के सबसे प्रतिष्ठित परिवारों में से एक है, जिनमें से पांच हैदराबाद - दक्खिन के तत्कालीन निजाम शासन में प्रधानमंत्री रह चुके हैं. नवाब मीर यूसुफ अली खान, जिसे सलारजंग - III के नाम से जाना जाता है, को 1912 में नवाब मीर उस्मान अली खान निजाम - VII द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था. सलारजंग - III ने नवंबर,1914 में दीवान या प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया और अपने जीवन को अपनी कला और साहित्य - खजाने को समृद्ध करने के लिए समर्पित कर दिया. कला के प्रति उनके अपार प्रेम की खबर दूर – दूर तक फैल चुकी थी और उनके पैतृक महल दिवान ड्योढ़ी में सदैव विश्व के कोनों – कोनों से कलात्मक वस्तुओं के विक्रेताओं का तांता लगा रहता था. विदेशों में उनके अपने एजेंट थे, जो उन्हें प्रसिद्ध प्राचीन व्यापारियों से कलात्मक वस्तुओं के कैटलॉग और सूचियां भेजते रहते थे. उन्होंने केवल इन्हीं एजेंटों के माध्यम से ही इन कलात्मक वस्तुओं की खरीद को सीमित नहीं रखा, बल्कि जब भी वे स्वयं यूरोप और मध्य - पूर्वी देशों में जाते थे, तो स्वयं भी इनकी खरीददारी करते थे.
वे न केवल प्राचीन वस्तुओं, कला और दुर्लभ पांडुलिपियों के महान संग्राहक थे, बल्कि कवियों, लेखकों व कलाकारों के भी बड़े हिमायती थे तथा सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करते थे. उन्होंने अपने ही परिवार के सदस्यों पर कई किताबें लिखकर उनका प्रकाशन किया. उनका यह कार्य चालीस वर्षों तक उनकी मृत्यु अर्थात 02 मार्च, 1949 तक चला. उनके द्वारा संग्रहित पूरा संग्रह बिना किसी उत्तराधिकारी के छूट गया था. यह उस पूर्व नवाब के पारिवारिक सदस्यों का निर्णय था, जिन्हें लगा कि उस संग्रह को राष्ट्र के नाम करने से बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता.
16 दिसंबर, 1951 को सलारजंग के घर दीवान ड्योढ़ी में उनके संग्रहण को संग्रहालय के रूप में घोषित कर दिया गया और इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा जनता के लिए खोल दिया गया. बाद में, भारत सरकार ने नवाब के परिवार के सदस्यों की सहमति से औपचारिक रूप से समझौता करते हुए संग्रहालय को अपने अधीन ले लिया और यह संग्रहालय वैज्ञानिक अनुसंधान और सांस्कृतिक मामले मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा शासित किया गया. अंतत: 1961 में, "संसद अधिनियम" के माध्यम से सलारजंग संग्रहालय और इसके पुस्तकालय को "राष्ट्रीय महत्व का संस्थान" घोषित कर दिया गया.
इस संग्रहालय को इसके वर्तमान भवन में वर्ष 1968 में स्थानांतरित किया गया और इसका उद्घाटन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन द्वारा किया गया था. इस संग्रहालय के प्रशासन को एक स्वायत्त बोर्ड को सौंप दिया गया, जिसका अध्यक्ष आंध्र प्रदेश के राज्यपाल को बनाया गया. आंध्र प्रदेश राज्य के विभाजन के बाद तेलंगाना के राज्यपाल इस संग्रहालय के अध्यक्ष हैं.
सलारजंग परिवार का संक्षिप्त इतिहास.
नवाब मीर तुराब अली खान, सलारजंग - I को 13 वर्ष की आयु में सलारजंग बहादुर का खिताब दिया गया था और बाद में, 24 वर्ष की आयु में उन्हें चौथे निजाम नवाब मीर फरखुंदा अली खान नाजि़र-उद-दौला द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया. वे कुशाग्र बुद्धिवाले प्रशासक थे और उनके द्वारा किए गए सुधारों और कला के गुणी के रूप में जाने जाते थे. 1883 में उनकी मृत्यु हो गई. सलारजंग - I यूरोपीय शाही परिवारों के राज्याभिषेक और विशेष आयोजनों के लिए बनाए गए स्मारक चिह्नों से बहुत प्रभावित था. वर्ष 1876 में अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान उन्होंने सेरेमिक (चीनी मिट्टी से बने) वस्तुओं से स्वयं का चित्र बनवाने का आदेश दिया. कहा जाता है कि अन्य अमूल्य वस्तुओं सहित "वील्ड रेबेका" को भी खरीदकर वे ही भारत लाए थे. आज वही ‘वील्ड रेबेका’ मूर्ति संग्रहालय की सबसे मूल्यवान संग्रहों में से एक है.
उनके दो बेटे – लाइक अली खान और शादत अली खान तथा दो बेटियां - नूर उन्नींसा बेगम और सुल्तान बख्त बेगम थीं. उनके बड़े बेटे मीर लाइक अली खान को पहले रीजेंसी परिषद के सचिव के रूप में नियुक्त किया गया और बाद में राज्य परिषद के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया. वर्ष 1884 में उन्हें हैदराबाद के छठे निजाम नवाब मीर महबूब अली खान द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया तथा "इमाद-उस-सल्तनत" की पदवी से नवाज़ा गया. उन्होंने अपना अधिकांश समय उनके पिता द्वारा आरंभ किए गए सामाजिक सुधारों को जारी रखने में बिताया और एक महान प्रशासक के रूप में जाने गए. 26 वर्ष की आयु में पूना में जब उनका निधन हुआ, तो अपने पीछे वे 24 दिन के बालक अब्दुल कासिम मीर यूसुफ अली खान को छोड़ गये. उनकी मां जैनब बेगम उस बच्चे के साथ लेकर हैदराबाद आ गई.
जब मीर यूसुफ अली खान दस वर्ष का था, तो निजाम ने उसे अपना पारिवारिक खिताब "सलारजंग" दे दिया और अपने 'मानसब' और अन्य खिताब पुन:बहाल कर दिए. उनका लालन-पालन बहुत अच्छे ढंग से किया गया. नवाब मीर यूसुफ अली खान को सबसे महत्वपूर्ण संपत्तियों की देख रेख का जिम्मा सौंपा गया और धीरे-धीरे उन्होंने उस असाधारण संग्रह को कला का खजाना बना दिया. विरासत में 1480 वर्ग मील भूमि पर फैले 450 गांवों की बड़ी भूमि संपदा, जिससे उस समय 23 लाख रुपए का वार्षिक राजस्व प्राप्त होता था और यह बहुत बड़ी आय थी, का स्वामी बनने पर वे एक बड़ी संपदा के उत्तराधिकारी बन गए. वे सौंदर्य प्रेमी थे, जो भारतीय, यूरोपीय, पूर्वी मध्य और सुदूर पूर्वी देशों की विशिष्ट कला रुचियों के लिए जाने जाते थे. बचपन से ही उन्होंने दुनिया भर की दुर्लभ कला-वस्तुओं के संग्रहण के प्रति अपना झुकाव दिखा दिया था.
सलारजंग - III ने यूरोपीय शाही परिवारों की परंपराओं को अनुकरण किया, जो सोने की परत चढ़ी विशेष रूप से तैयार की गई कटलरी और क्रॉकरी बनाकर यूरोप के प्रसिद्ध निर्माता – घराना बन गए थे. आज संग्रहालय में ऐसी कई घरेलू वस्तुएं हैं, जो इसके साक्ष्य हैं. नवाब मीर उस्मान अली खान, जो सातवें निजाम थे, ने 1912 में मीर यूसुफ अली खान, सलारजंग - III को अपने प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया. किंतु, खराब स्वास्थ्य के कारण सलारजंग – III ने नवंबर,1914 में प्रधानमंत्री पद को छोड़ दिया और उसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन कला संग्रह को और समृद्ध करने में व्यतीत किया.